बुधवार, 31 अगस्त 2011

बदलते हुए जीवन को देखते उसे जीते हुए
मैं ठीक करता टूटी हुई चीजों को, उठा कर सीधा करता
गिरी हुई को
कतरता पौछंता झाड़ता बुहारता,
जीते हुए बदलते जीवन को देखता
छूटता गिरता टूटता गर्द होता,
और आते हुए लोग मेरे बीतते हुए दृश्य को
कहते सामान्य
सब कुछ नया साफ सुथरा
जैसे मैं देखता उसे इस पल
और बदलता तभी
छूटता मेरे हाथों से
जैसे वह कभी ना था वहाँ

कौन रुक कर पूछता मैं
अब तब नहीं जाना मैंने तुम्हें

1 टिप्पणी:

  1. आपका ब्लॉग बहुत ही अच्छा है
    इतना सुंदर ब्लॉग बनाने के लिए धन्यवाद और शुभकामनाएँ

    अरविन्द त्रिपाठी

    जवाब देंहटाएं