सोमवार, 28 नवंबर 2011




Hawa ne darkht ke patton se
jane kay kaha
darkht par bethe sare
parinde ud gaye
ek arsa guzar gaya
loat kar bhi nahi aye
shakhon se toot kar
girne lage pile patte!

जवाब

कुछ सवालों के जवाब नहीं होते
शब्द टूट कर बिखरते हैं
यहाँ शब्द हिलते होटों की जुम्बिश हैं
फिर आवाज़ें
आवाज़ें तो सुनी जाती हैं 
आवाजों को कब देखा जा सकता है 
फिर आँखें क्यौं बोलती हैं
शायद आँखे खिड़कियाँ होती हैं
दिल के तहखानों की
झूट की दुनियाँ में 
सच गूंगा है
बूढ़ी हथेली की रेखाओं की तरहा
सब कुछ गडमड 
चेहरे मुखोटा बदल कर सामने आ जाते है
मगर खामोशी के अपने खतरे 
सवाल होते है तो 
जवाब खोजने की शिद्द्त भी
बनी रहती है !

Saare din ka
dhul se bhara
dhup se tapa
thaaka hua lal suraj
palken jhapka kar
dekhti hai shaam use!.

गुरुवार, 1 सितंबर 2011

यह किस तरह की बारिश
जो रोज होती है अलग अलग समय
कौन पौंछता होगा उसके चेहरे को,

टकराते टूटते संभालते अपने आप
को
मिटाते किसी आत्मलाप को किनारों से
पुरातीत सीत्कार के साथ
पर फिर एक पल झिझक
जैसे मुड़कर कोई देखता कुछ याद कर


जो समुंदर कहीं नहीं पहुँच पाया वो उड़ चला बादल बन,
अक्सर ऐसा ही होता है
पर कुछ होते हैं जो
शायद ... बन जाते हैं आकाश...

बुधवार, 31 अगस्त 2011

मैंने तो कभी नहीं कहा मैं खींच रहा हूँ आकाश पर लकीर, मैंने बस बोलते हुए सोचा 
आकाश पर लकीर खींच रहा हूँ ,
कि 
नींद खुल गई यह देखकर
बदलते हुए जीवन को देखते उसे जीते हुए
मैं ठीक करता टूटी हुई चीजों को, उठा कर सीधा करता
गिरी हुई को
कतरता पौछंता झाड़ता बुहारता,
जीते हुए बदलते जीवन को देखता
छूटता गिरता टूटता गर्द होता,
और आते हुए लोग मेरे बीतते हुए दृश्य को
कहते सामान्य
सब कुछ नया साफ सुथरा
जैसे मैं देखता उसे इस पल
और बदलता तभी
छूटता मेरे हाथों से
जैसे वह कभी ना था वहाँ

कौन रुक कर पूछता मैं
अब तब नहीं जाना मैंने तुम्हें
धीरे धीरे चलती है इंतजार की घड़ी
और समय भागता है समय की परछाईयों में
रोशनी के छद्म रुपों में,
मैंने चुना है यह मुखौटा
केवल पहचान के लिए

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

मैं तुझसे अपना ताउरुफ़
कैसे करवाऊजिंदगी
तू रोज़ मिलती है मुझको
फिर भी लगती है अजनबी
गुल तब्बसुम के यूँ ही खिलतें रहे
हम आपसे आप मिलते रहें
ये मोहब्बत के सिलसिले
तमाम उम्र यूँ ही चलते रहे ............................................................



mai

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

Achha Lagta Hai...


अच्छा लगता है ..
धुप से झुलसते बदन को ,
तुम्हारे गेसुओं की छाँव..

अच्छा लगता है ..
प्यास से तडपते होंठो को ,
तुम्हारे भींगे होंठो का स्पर्स ..


रात की नीरवता में
तारों को निहारना
चाँद की शीतल फुहारों में
कामाग्नि में धधकती
तुम्हारे बदन का साथ
अच्छा लगता है..

अच्छा लगता है..
पा कर इन गहरी आँखों में ,
अपनी मंजिल का अंत !!!                                              


                     ०९/०८/९८ ...०९:४५ p .म
                          मनोज कुमार


सोमवार, 4 अप्रैल 2011

भारतीय नारी के हर त्यौहार पर पार पार्वती ज़रूर पुजती हैं, उनसे सुहाग लिये बिना विवाहताओं की झोली नहीं भरती। सहज प्रसन्नमना हैं गौरा। कोई अवसर हो मिट्टी के सात डले उठा लाओ और चौक पूर कर प्रतिष्ठत कर दो, गौरा विराज गईं। पूजा के लिये भी फूल-पाती और जो भी घर में हो खीर-पूरी, गुड़, फल, बस्यौड़ा और जल। दीप की ज्योति भी उनका स्वरूप है ज्वालारूपिणी वह भी जीमती है! पुष्प की एक पाँखुरी का छोटा सा गोल आकार काट कर रोली से रंजित कर गौरा को बिन्दिया चढ़ाई जाती है। और बाद में सातों पिंडियों से सात बार सुहाग ले वे कहती हैं। माँ ग्रहण करो यह भोग और भण्डार भर दो हमारा। अगले वर्ष फिर इसी उल्लास से पधारना और केवल हमारे घर नहीं हमारे साथ साथ, बहू के मैके, धी के ससुरे, हमारे दोनों कुलों की सात-सात पीढ़ियों तक निवास करो। विश्व की कल्याण-कामना इस गृहिणी के, अन्तर में निहित है क्योंकि यह भी उसी का अंश है, उसी का एक रूप है। यह है हमारे पर्वों और अनुष्ठानों की मूल-ध्वनि!

त्योहार

भारतीय नारी के हर त्यौहार पर पार पार्वती ज़रूर पुजती हैं, उनसे सुहाग लिये बिना विवाहताओं की झोली नहीं भरती। सहज प्रसन्नमना हैं गौरा। कोई अवसर हो मिट्टी के सात डले उठा लाओ और चौक पूर कर प्रतिष्ठत कर दो, गौरा विराज गईं। पूजा के लिये भी फूल-पाती और जो भी घर में हो खीर-पूरी, गुड़, फल, बस्यौड़ा और जल। दीप की ज्योति भी उनका स्वरूप है ज्वालारूपिणी वह भी जीमती है! पुष्प की एक पाँखुरी का छोटा सा गोल आकार काट कर रोली से रंजित कर गौरा को बिन्दिया चढ़ाई जाती है। और बाद में सातों पिंडियों से सात बार सुहाग ले वे कहती हैं। माँ ग्रहण करो यह भोग और भण्डार भर दो हमारा। अगले वर्ष फिर इसी उल्लास से पधारना और केवल हमारे घर नहीं हमारे साथ साथ, बहू के मैके, धी के ससुरे, हमारे दोनों कुलों की सात-सात पीढ़ियों तक निवास करो। विश्व की कल्याण-कामना इस गृहिणी के, अन्तर में निहित है क्योंकि यह भी उसी का अंश है, उसी का एक रूप है। यह है हमारे पर्वों और अनुष्ठानों की मूल-ध्वनि!
यही है नारीत्व की चिर-कामना कि उसके आगे समर्पित हो जो मुझसे बढ़ कर हो। इसी मे नारीत्व की सार्थकता है और इसी में भावी सृष्टि के पूर्णतर होने की योजना। असमर्थ की जोरू बन कर जीवन भर कुण्ठित रहने प्रबंध कर ले, क्यों? पार्वती ने शंकर को वरा, उनके लिये घोर तप भी उन्हें स्वीकीर्य है। शक्ति को धारण करना आसान काम नहीं। अविवेकी उस पर अधिकार करने के उपक्रम में अपना ही सर्वनाश कर बैठता है। जो समर्थ हो, निस्पृह, निस्वार्थ और त्यागी हो, सृष्टि के कल्याण हेतु तत्पर हो, वही उसे धारण कर सकता है- साक्षात् शिव। नारी की चुनौती पाकर असुर का गर्व फुँकार उठता है, अपने समस्त बल से उसे विवश कर मनमानी करना चाहता है। वह पाशविक शक्ति के आगे झुकती नहीं, पुकार नहीं मचाती कि आओ, मेरी रक्षा करो! दैन्य नहीं दिखाती -स्वयं निराकरण खोजती है - वह है पार्वती। उन्हें बचाने शिव दौड़ कर नहीं आते। स्वयं निराकरण करने में समर्थ है -वह साक्षात् शक्ति है
माँ, आविर्भूत होओ हमारे जीवन में, करुणा बन बस जाओ हृदय में, शक्ति स्वरूपे, समा जाओ मेरे तन-मन में! जहाँ तक मेरा अस्तित्व है तुमसे अभिन्न रहे! अपनी कलाओं में रमती हुई मेरी चेतना के अणु-अणु में परमानन्द की पुलक बन विराजती रहो...
कृष्णवर्णा, मुण्डमालिनी भीमरूपा भयंकरा!





काली करालवदना, नरमाला विभूषणा,





भृकुटी कुटिलात्तस्या शुष्कमाँसातिभैरवा





अतिविस्तारवदना, जिह्वाललनभीषणा





निमग्नारक्तनयनानादापूरित दिङ्मुखा


उसके सभी रूप वरेण्य हैं, जगत् के लिये काम्य और कल्याणकारी हैं। माँ के कोप में भी करुणा की अंतर्धारा विद्यमान है। दण्ड पा चुके महिषासुर को सायुज्य प्रदान करती है, अपने से जोड़ लेती है, सदा के लिये। भटका हुआ प्राणी माँ की छाया में चिर- आश्रय पा लेता है।
माँ तो माँ है! प्रसन्न होकर स्नेह लुटायेगी तो कुपित होने पर दंडित भी करेगी, दोनों ही रूपों में मातृत्व की अभिव्यक्ति है। अवसर के अनुसार व्यवहार ही गृहिणी की कुशलता का परिचायक है, फिर वह तो परा प्रकृति है विराट् ब्रह्माण्ड की, संचालिका - परम गृहिणी। उस की सृष्टि में कोई भाव कोई रूप व्यर्थ या त्याज्य नहीं। समयानुसार प्रत्येक रूप और प्रत्य्क भाव आवश्यक और उपयोगी है। भाव की चरम स्थितियाँ -ऋणात्मक और, धनात्मक -कृपा-कोप, प्रसाद-अवसाद, सुखृदुख ऊपर से परस्पर विरोधी लगती हैं, एकाकार हो पूर्ण हो उठती हैं। उस विराट् चेतना से समरूप - वही पूर्ण प्रकृति है। उसका दायित्व सबसे बड़ा है अपनी संततियों के कल्याण का। हम जिसे क्रूर -कठोर समझते हैं अतिचारों के दमन के लिये वह रूप वरेण्य है।





'अव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्माद्या'

सोमवार, 28 मार्च 2011

सुन्दरता..!!!

सुन्दरता चेहरे पे नहीं,
दिल में नज़र आती है ।
हजारों के समूह में प्रियतमा,
प्रियतम को ही नजर आती है ।
मानवता कहने में नहीं,
कर-गुजरने में नजर आती है ।
दोस्ती दोस्तों की संख्या में नहीं,
एक सच्चे दोस्त में नजर आती है ।
कविता की गहराई शब्दों में नहीं,
लिखने वाले के भाव में नजर आती है ।
बड़ी सी कविता क्यूँ लिखूँ ,
मेरी बात मेरी सखी यूँ ही समझ जाती है...

maithili folk song

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

यूँ ही.....

जाते जाते वो यूँ ही सारी बात खत्म कर गया ।
मुहँ से कुछ भी ना कहा ,सारी बात खत्म कर गया ।
एक दिन मिला ऎसे ,सारी मुलाकात खत्म कर गया ।
कुछ सिलसिले शुरू किये थे उसने,
लेकिन अब वो हर शुरूवात खत्म कर गया ।
कुछ सपनों को मेरी निगाहों में बसा के वो ,
मेरे दिल से हर जस्बात खत्म कर गया ।
रुठा था तो मना लेते ,तन्हा था तो बुला लेते ,
कुछ यूँ हुआ के मिलने के सब हालात खत्म कर गया ।
उसने पुछे थे कुछ सवाल ,कुछ जवाब गलत दिये हमने ,
अब नहीं सुनता कहता हैं वो हर सवालात खत्म कर गया

गुरुवार, 24 मार्च 2011

Unforgettable Mohammad Rafi

एक बार चांदनी रात में मैंने रफ़ी साहब की आवाज़ में गया ये गाना "खोया खोया चाँद खुला आसमान "और मै उनकी फैन ,एसी ,कूलर और नजाने क्या -२ हो गई !मेरा पहला प्यार उनकी आवाज़ ही थी!मै केवल उन्ही के गाने सुनती मुझे तो ये लगने लगा था जैसे वो मेरे लिए ही गा रहें हैं मै आँखे बंद कर गाने सुनती और गानों में ही खो सी जाती ....मेरी बड़ी दीदी उनको "अजीज़ " जी का गाना पसंद था ..वो मुझ से कहती मै तो अजीज़ जी से शादी करुँगी !तो मैंने कहा एसा हो सकता है क्या???तो वो बोली हाँ क्यों नहीं हो सकती ..तो मै बोली तो फिर मै भी रफ़ी जी से शादी करुँगी ..वो बोली अरे.. तुम कैसे उनसे शादी करोगी ?तुम उनसे शादी नहीं कर सकती ..मै बोली जब तुम अजीज़ से शादी कर सकती हो तो मै क्यों नहीं...??क्यूंकि वो अब इस दुनियां में नहीं है ....तब मै रोने लगी थी..लेकिन अब ये सब सोंच कर होंठो पर मुस्कान आ जाती है....लेकिन उनकी आवाज़ मेरी रूह में समाई हुई है जिसमे कभी भी नहीं भूल सकती........"तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे जब कभी .कभी भी सुनोगे गीत मेरे संग -२ तुम भी गुनगुनाओगे "..

बुधवार, 23 मार्च 2011

कहते हैं आप कविता नही लिखते कविता आपको लिखती है , पता नही मैंने इस कविता को और इस कविता ने मुझे कितना लिखा | मेरे लिए फर्क करना मुश्किल है ....
क्या लिखूँ
कुछ जीत लिखू या हार लिखूँ
या दिल का सारा प्यार लिखूँ ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
कुछ अपनो के ज़ाज़बात लिखू या सापनो की सौगात लिखूँ ॰॰॰॰॰॰
मै खिलता सुरज आज लिखू या चेहरा चाँद गुलाब लिखूँ ॰॰॰॰॰॰
वो डूबते सुरज को देखूँ या उगते फूल की सान्स लिखूँ
वो पल मे बीते साल लिखू या सादियो लम्बी रात लिखूँ
मै तुमको अपने पास लिखू या दूरी का ऐहसास लिखूँ
मै अन्धे के दिन मै झाँकू या आँन्खो की मै रात लिखूँ
मीरा की पायल को सुन लुँ या गौतम की मुस्कान लिखूँ
बचपन मे बच्चौ से खेलूँ या जीवन की ढलती शाम लिखूँ
सागर सा गहरा हो जाॐ या अम्बर का विस्तार लिखूँ
वो पहली -पाहली प्यास लिखूँ या निश्छल पहला प्यार लिखूँ
सावन कि बारिश मेँ भीगूँ या आन्खो की मै बरसात लिखूँ
गीता का अॅजुन हो जाॐ या लकां रावन राम लिखूँ॰॰॰॰॰
मै हिन्दू मुस्लिम हो जाॐ या बेबस ईन्सान लिखूँ॰॰॰॰॰
मै ऎक ही मजहब को जी लुँ ॰॰॰या मजहब की आन्खे चार लिखूँ॰॰॰

कुछ जीत लिखू या हार लिखूँ
या दिल का सारा प्यार लिखूँ ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰

गुरुवार, 17 मार्च 2011


रंगों की बरात लिए वसंत आता है तो आनंद से सारा परिवेश सराबोर हो उठता है। वसंत और कामदेव का संबंध शिव के साथ भी है। शिव काम को भस्म भी करते हैं और पुनर्जीवन भी देते हैं। शिव पुरुष भी हैं और स्त्री भी।
फूटे रंग वासंती, गुलाबी,
लाल पलास, लिए सुख, स्वाबी,
नील, श्वेत शतदल सर के जल,
चमके हैं केशर पंचानन में
होली भारतीय समाज का एक  प्रमुख त्यौहार हैजिसका लोग बेसब्री के साथ इंतजार करते हैं। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग रूपों में होली मनाई जाती है। रबी की फसल की कटाई के बाद वसन्त पर्व में मादकता के अनुभवों के बीच मनाया जाने वाला यह पर्व उत्साह और उल्लास का परिचायक है। अबीर-गुलाल व रंगों के बीच भांग की मस्ती में फगुआ गाते इस दिन क्या बूढ़े व क्या बच्चेसब एक ही रंग में रंगे नजर आते हैं वसंत बर्फ के पिघलने, गलने और अँखुओं के फूटने की ऋतु है। ऋतु नहीं, ऋतुराज। वसंत कामदेव का मित्र है। कामदेव ही तो सृजन को संभव बनाने वाला देवता है। अशरीरी होकर वह प्रकृति के कण कण में व्यापता है। वसंत उसे सरस अभिव्यक्ति प्रदान करता है। सरसता अगर कहीं किसी ठूँठ में भी दबी-छिपी हो, वसंत उसमें इतनी ऊर्जा भर देता है कि वह हरीतिमा बनकर फूट पड़ती है। वसंत उत्सव है संपूर्ण प्रकृति की प्राणवंत ऊर्जा के विस्फोट का। प्रतीक है
होली मेरे लिए सबसे बड़ा त्यौहार है क्यूँ की होली के दिन पूरी आज़ादी के साथ मस्ती धमा-चोकड़ी कर सकतें हैं और कोई रोकने वाला भी नहीं होता !मस्ती, खाना और गाना इसी का तो नाम होली है पर इस दिन हमें ये भी ख्याल रखनी उतनी ही जरुरी है की मेरे कारण किसी को चोट न पहुंचे न ही किसी का दिल दुखे ! नहीं तो रंग में भंग होते भी देर न लगेगी !शादी के बाद से अब मै होली में उतनी मस्ती तो नहीं कर पाती हूँ अपने पति और बच्चों के साथ ही थोडा बहुत होली खेल लेती हूँ क्यूंकि मेरा ज्यादा समय तो मालपुए ,गुघिया और दही बड़ा बनाने में ही बीत जाता है होली का मै हर साल बेसब्री के साथ इंतजार करती हूँ भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बडी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। शायद यही कारण है कि एक समय किसी धर्म विशेष के त्यौहार माने जाने वाले पर्व आज सभी धर्मों के लोग आदर के साथ हँसी-खुशी मनाते हैं।आप सब को मेरे ओर से होली की ढेर सारी बधाइयाँ हैप्पी होली... नेहा ठाकुर

मंगलवार, 15 मार्च 2011

ये कैसा तुम्‍हारा जादू वसंत
तन मन दोनों बौराए
पलक झपकती नहीं
इंतज़ार अपने दीवाने का
ये आँखें करती हैं
सच कहती हूँ वसंत
तुम्‍हारा आना मन को
बहुत भाता है
तुम्‍हारे आने से
आँचल मेरा भर जाता है
अपार खुशियों से........
सब कुछ छूट जाता है पर ये दुर्भाग्य नही छूटता .........ये दर्द, आंसू ,
प्रेम, यादें, खालीपन, हमारा साथ नही छोड़ता..................संग चलती
रहते है बिना रुक जीवन की तरह ......................कभी कभी लगता है जब
सब का साथ छूट जाना है तो ये भी हमारा साथ क्यो नही छोड़ देते l
उलझनों ने हम दोनों को
कर दिया बेस्वाद l
लौट कर आना चाहूँ भी तो कैसे.....?
क्या लाऊँगी तुम्हारे लिए
नफरतों के गुलाब
और आरोपों के झरते गुलमोहर

नहीं दोस्त, मुझे जाने दो
तुम्हारे लिए, मैं तुम जैसी नहीं रही l
तुम्हारे ही कारण, मैं बहुत कड़वी हो रही हूँ।
इसे अफवाह मत समझना
यह सच है, मैं भीतर से कड़वी हो रही हूँ।

दिल की कोमल धरा पर
धँसी हुई है
तुम्हारी यादों की किरचें
और
रिस रहा है उनसे
बीते वक्त का लहू,
कितना शहद था वह वक्त
जो आज तुम्हारी बेवफाई से
रक्त-सा लग रहा है।
तुम लौटकर आ सकते थे
मगर तुमने चाहा नहीं
मैं आगे बढ़ जाना चाहती थी
मगर ऐसा मुझसे हुआ नहीं।

तुम्हारी यादों की
बहुत बारीक किरचें है....
दुखती हैं
पर निकल नहीं पाती
तुमने कहा तो कोशिश भी की।
किरचें दिल से निकलती हैं तो
अँगुलियों में लग जाती है l
कहाँ आसान है
इन्हें निकाल पाना
निकल भी गई तो कहाँ जी पाऊँगी
तुम्हारी यादों के बिना।

उत्ताप दोपहरी की
ठहरी हुई तपिश में
तुम्हारी आवाज का एक टुकड़ा
शहद की ठंडी बूँद सा
घुलता रहा मुझमें शाम तक।

टूट-टूट कर बिखरते अनारों-सी
तुम्हारी आतिशी हँसी
मेरे मन की कच्ची धरा पर
टप-टप बिखरती रही,
मैं ढूँढती रही तुम्हें
बुझे हुए अवशेषों में,
झुलसती रही रात भर।

तुम्हारी आवाज का टुकड़ा भी
घुलने के बाद अटकता रहा,
फँसता रहा।
बेरहम बादल
बेमौसम बजता रहा,
बिन बरसे हँसता रहा।
Mere Liye तुम
नहीं हो एक शब्द
तुम
नहीं हो पल भर का साथ
तुम
नहीं हो केवल याद
तुम.....?
तुम हो मेरे जीवन का वह राज
जिसे मैं, कभी ना दे सकी आवाज.........।

शनिवार, 12 मार्च 2011

बात कम कीजिये जहानत को छूपाते रहिये



ये नया शहर है कोई दोस्त बनाते रहिये ...


दुश्मनी लाख सही ख़तम न कीजिये रिश्ता..


दिल मिले न मिले हाँथ मिलते रहिये .....निदा फाजली


बुधवार, 2 मार्च 2011

आते ही
जीवंत हो उठता है यह घर
तुम्हारे चले
तुमने

मेरी यादों की धरती पर
अपना घर बना रखा है
घर कि
जिसके द्वार
खुले रहते हैं सदैव।

जब जी चाहता है
तुम आ जाते हो इस घर में
जब जी चाहता है
चले जाते हो इससे बाहर।

तुम्हारे आने का
न कोई समय तय है
न जाने का।
तुम्हारे  जाने से
पसर जाता है इसमें
मरघटों-सा सन्नाटा।

तुम्हें हाथ पकड़ कर
रोक लेने की
चाहत भी तो पूरी नहीं होती
क्योंकि
न जाने कहाँ छोड़ आते हो
तुम अपनी देह
इस घर में आने से पहले।

मंगलवार, 1 मार्च 2011

मेरे जीवन में अचानक खुला



तुम एक ऐसा पृष्ठ हो


जो सौ सोपानों से भी अधिक मूर्तिमान है।


तुम ना तो मेरा बीता हुआ कल हो


और न आने वाला कल


तुम सिर्फ़ एक सशक्त वर्तमान


मेरी आत्मा से प्रस्फुटित


वैदिक ऋचाओं-से पवित्र


मेरे अस्तित्व की नई पहचान


अपरिमाणित हो कर भी


एक अनन्य सत्य की भाँति


मेरे प्राण की संजीवनी


सर्वशक्तिमान!
अभी धुप है तो जी भर के देख ले उसे ...... 
चला गया तो चिराग लेके ढूंढ़ते कहाँ  फिरोगे उसे ....

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

ये कैसा तुम्‍हारा जादू वसंत
तन मन दोनों बौराए
पलक झपकती नहीं
इंतज़ार अपने दीवाने का
ये आँखें करती हैं
सच कहती हूँ वसंत
तुम्‍हारा आना मन को
बहुत भाता है
तुम्‍हारे आने से
आँचल मेरा भर जाता है
अपार खुशियों से

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

Naino Mein Badra Chhaye - Mera Saaya (1080p HD Song)

Mera Saaya (1966) - Nainon Mein Badra Chhaye

Asha & Usha - Kahey Tarsaaye Jiyara - Chitralekha [1964]

प्रेम में प्रेमास्पद आगे बदने की ख्वाइश रखता है और अपेक्षाएं करता है कि प्रतिध्वनि भी



समान होगी और प्रतिध्वनि जब समानांतर नहीं होती तब टूटता है प्रेम, शाश्वत सत्य है


कि अगर ताल से ताल नहीं मिलती तो संगीत भी बेसुरा हो जाता है क्यूंकि प्रेम हमारे


जीवन का अंग है जीवन नहीं, साँसों कि लय है सांस नहीं .


प्रेम उदय तो होता है एह क्षणिक आकर्षण से पर पलता और पुष्ट होता है विश्वास के विशाल


वृक्ष के तले और तब्दील हो जाता है स्वयं एक विशाल वृक्ष में जिसके तले जीवन के अन्य


आवेग पलते है जैसे ममता क्रोध इत्यादि और रसमय कर देता है खुद को अपनी ही


प्रतिध्वनियों में पर अंत नहीं होता प्रेम का जब तक साँसे साथ नहीं छोडती


या स्पन्दन्हीन नहीं होता मन


जिसका अंत हो जाय वह प्रेम नहीं वासना है जो सिर्फ धोखा देती है प्रेम का,

पर प्रेम जैसी विशाल पवित्र और निरंतर नहीं होती. वासना में जुनून होता है

प्रेम शांत अविरल मंजिल कि ओर बढता है प्रतिउत्तर न मिलने पर मूक हो जाता है

पर  ख़तम नहीं होता ......नेहा प्रेम दिवस पर विशेष .......
प्यार तो दो आत्माओं का मिलन है। कोई किसी को कब अच्छा लग जाए, कब किसे दिल दे बैठे यह कहा नहीं जा सकता। प्यार किसी सूरत या लेन-देन से मतलब नहीं रखता। प्यार में बस सच्चाई होनी चाहिए। ये ज़रूरी नहीं कि जिसे हम चाहें या पसन्द करें वह भी हमें उतना ही चाहे। प्यार तो किसी से भी हो सकता है, चाहे वह कोई भी हो। चाहे वह मां-बाप हो, बहन-भाई, कोई रिश्तेदार या फिर कोई ऐसा, जिसे आप अपनी ज़िन्दगी में एक खास जगह देते हैं। प्यार तो बिना किसी मतलब के किया जाता है और जब आप किसी को प्यार करते हैं तो यह उम्मीद नहीं रखना चाहिए कि आपको भी वह उतना ही प्यार करे। बस आप उसे प्यार करो और उसे खुश रखो , चाहे वह किसी और से ही प्यार क्यों न करता हो। कोई ज़रूरी नहीं कि हम जिसे प्यार करें वह हमारा जीवनसाथी बने ही। इसीलिए तो कहा है कि प्यार नि:स्वार्थ होता है।



ऐ खुदा आज ये फरमान लिख दे

मेरी खुशी मेरे दोस्त के नाम लिख दे

अगर उसकी खुशी के लिए किसी की जान चाहिए

तो उस जान पर मेरा नाम लिख दे..........नेहा

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

या कुंदेंदु तुषारहार धवला, या शुभ्र वस्त्रावृता |

या वीणावर दण्डमंडितकरा, या श्वेतपद्मासना ||

या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभ्रृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता |

सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेष जाड्यापहा ||



जो कुंद फूल, चंद्रमा और वर्फ के हार के समान श्वेत हैं, जो शुभ्र वस्त्र धारण करती हैं|

जिनके हाथ, श्रेष्ठ वीणा से सुशोभित हैं, जो श्वेत कमल पर आसन ग्रहण करती हैं||

ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदिदेव, जिनकी सदैव स्तुति करते हैं|

हे माँ भगवती सरस्वती, आप मेरी सारी (मानसिक) जड़ता को हरें||

देखते ही

किसी तरफ़

एक रिश्ता कायम कर

उसे

सदियों पुराना

साथी बना लेती थीं

पर आज

यकायक

देख कर

किसी को

शायद...!

ये ना जाने कौन है...?

विचार कर

खुद-ब-खुद

चुरा ली जाती हैं

कभी-कभी सोचता हूं

किसी की तरफ़

उठ कर

रुक क्यों नहीं जाती...!

पत्थरा क्यों नहीं जाती...!

ये आंखें......

रविवार, 30 जनवरी 2011

baby-world: चाहत थी अपनीराग की नदी बन बहूं तुम्‍हारी सांसों...

baby-world: चाहत थी अपनी


राग की नदी बन बहूं तुम्‍हारी सांसों...
: "चाहत थी अपनी राग की नदी बन बहूं तुम्‍हारी सांसों में यही तो रही चाह तुम्‍हारी भी, पर सहेज नहीं पाए तुम अपने मन का आवेग ...स्‍वीकार नही..."
चाहत थी अपनी


राग की नदी बन बहूं तुम्‍हारी सांसों में

यही तो रही चाह तुम्‍हारी भी,

पर सहेज नहीं पाए

तुम अपने मन का आवेग

...स्‍वीकार नहीं पाए

अपने भीतर मेरा निर्बंध बहना,

जो बांधता रहा तुम्‍हें किनारों में,



हर बार सह-बहाव से अलग

तुम निकल जाते रहे किनारा लांघकर

खोजते तुम्‍हें उसी मरुस्थल में

बूंद बूंद विलुप्त होती रही मैं

साथ बहने की मेरी आकांक्षाएं

पंछी की प्यास बनकर रह गईं

राग में डूबे मन ने फिर फिर चाहा

तुम्‍हारी चाहत बने रहना- आजन्‍म

तुम हार तो सकते हो दीगर हालात से

मगर संवार नहीं सकते

अपना ये बिखरा जीवन-राग



मुझमें भी अब नहीं बची सामर्थ्‍य

धारा के विपरीत बहा ले जाने की

न आंख मूंदकर मानते रहना हर अनुदेश

मैं अनजान नहीं हूं अपनी आंच से

नहीं चाहती‍ कि कोई आकर जलाए तभी जलूं

बुझाए, तब बुझ जाऊं

नहीं चाहती कि पालतू बनकर दुत्कारी जाऊं

और बैठ जाऊं किसी कोने में नि:शब्‍द

मुझे भी चाहिए अपनी पहचान

अपने सपने -

जो कैद है तुम्‍हारी कारा में

चाहिए मुझे अब अपनी पूर्णता

जो फांक न पैदा करे हमारे दिलों में ...

करो तुम्‍हीं फैसला आज

क्या मेरी चाहत गलत है

या तुम्‍हीं नहीं हो साबुत, साथ निभाने को ..?

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

स्मृति

  • आज भी कितने ही लोग हमारे बीच ऐसे है ‍िजनकी स्मृतियों के विराट समुद्र में इस एक पतंग के बहाने बहुत कुछ आलोडि़त होता है। कितनी ही दुर्बल अंजुरियों में वह पतंगमयी अतीत आज भी थरथराता है। किसी ने इसे अपनी मुट्ठी में कसकर भींच रखा है । बार-बार खुलती है मुट्ठी और एक मीठी याद शब्दों में बँधकर, कपोलों पर सजकर इसी पुराने आकाश पर ऊँचा उठने के लिए बेकल हो जाती है। जब हमने जानने के लिए हथेली पसारी तो कहाँ संभल सकी वे स्मृतियाँ? अँगुलियों की दरारों से फिसलने लगी। सच ही कहा है किसी ने कि स्मृतियों को समेटने के लिए दामन भी बड़ा होना चाहिए.. नेहा ठाकुर

कहते हैं जिंदगी बहुत छोटी है और यदि हम इस छोटी सी जिंदगी में भी अपनों से बैर पालकर बैठ जाएँ तो जिंदगी का क्या मजा आएगा? इस दिन सभी पुराने गिले-शिकवे भूलाकर तिल-गुड़ से मुँह मीठा कर दोस्ती का एक नया रिश्ता कायम किया जाता है। समूचे महाराष्ट्र में इस त्योहार को रिश्तों की एक नई शुरुआत के रूप में मनाया जाता है। कुछ इसी तरह पंजाब में 'लोहड़ी' के रूप में तो ‍तमिलनाडु में 'पोंगल' के रूप में इस त्योहार को मनाते हुए प्रकृति देवता का नमन किया जाता है।
नीले आकाश में कविता-सी रचती...हवा के परों पर इधर-उधर डोलती, तरह-तरह की शक्ल-सूरतों वाली पतंगें कितना कुछ बयान कर जाती हैंनीले आकाश में कविता-सी रचती...हवा के परों पर इधर-उधर डोलती, तरह-तरह की शक्ल-सूरतों वाली पतंगें कितना कुछ बयान कर जाती हैं
आसमान में उड़ती पतंगों को जब ढील दे..., ढील दे भैया... इस पतंग को ढील दे... कहते हुए जैसे ही मस्ती में आए तो फिर इस पतंग को खींच दे, लगा ले पेंच फिर से तू होने दे जंग... के कई कहकहे सुनाई पड़ने लगते हैं। यह पतंग हमें नजर को सदा ऊँची रखने की सीख देती है। यह त्योहार सिर्फ एक दिन का ही नहीं अपितु हमें जीवन भर अपनी नजरें ऊँची रखकर सम्मान के साथ जीने की सीख भी देती है........।




मंगलवार, 11 जनवरी 2011

आंधियां जब तेज रही थी


टहनियों में खलबली थी



दरख़्त वही जगह पर रहे

जड़े जिनकी खूब गहरी थी



खुद को घायल पाया हमने

हुस्न से जब नज़र मिली थी



एक मुलाक़ात में दिल दे बैठे

नाजनीन वो बड़ी हसीं थी



सुबह तक डूबा रहा सूरज

जाड़े की एक रात बड़ी थी



सब ने अपने होश गंवाये

ऐसी तो उसकी जादूगरी थी



तंग गलियों से जब मैं निकला

देखा तब एक सड़क खुली थी
हर खुशी है लोगो के दामन मै,


पर एक हँसी के लिये वक्त नहीं.

दिन रात दौडती दुनिया मै,

जिन्दगी के लिये ही वक्त नही.....



माँ कि लोरी का एहसास तो है,

पर माँ को माँ केहने क वक्त नही.

सारे रिश्तो को तो हम मार चुके,

अब उन्हे दफनाने का भी वक्त नही.....



सारे नाम मोबईल मै है,

पर दोस्ति के लिये वक्त नही.

गैरो कि क्या बात करे,

जब अपनो के लिये हि वक्त नही.....



आँखो मे है नीन्द बडी,

पर सोने क वक्त नही.

दिल है गमों से भरा हुआ,

पर रोने का भी वक्त नही.....



पैसों कि दौड मे ऐसे दौडे,

कि थकने क भी वक्त नही.

पराये एहसासों की क्या कद्र करें,

जब अपने सपनो के लिये ही

वक्त नही.....



तू ही बता ए जिन्दगी,

इस जिन्दगी का क्या होगा,

की हर पल मरने वालों को,

जीने के लिये भी वक्त नही...
शब्दों के उपवन में तुम,


गुंजन भँवरे-सा करते रहे

निःशब्द मौन की अनुभूति मगर

मन की मेरी समझ न सके.......

इस साल न हो पुर-नम आँखें ,इस साल न वो ख़ामोशी हो ,


इस साल न दिल को दहलाने वाली बेबस-बेहोशी हो इस साल मोहब्बत की दुनियां में दिल-दिमाग की आँखें हो,

इस साल हमारे हाँथो में आकाश चूमती पंखें हो ,ये साल अगर इतनी मुहलत दिलवा जाये तो अच्छा है

ये साल अगर हमसे हमको मिलवा जाये तो अच्छा है ......नेहा