गुरुवार, 20 जून 2013

इंतजार

बहुत दूर आसमान में 
चमकते देखा था कल उसे 
एक बार उसके हक में दुआ की थी 
लगता है कुबूल हो गई 
उस तक पहुँचना नामुमकिन तो न था 
सफर बहुत लंबा भी न था 
पर कदम जाने क्यों उठे ही नहीं 
और अचानक शाम हो गई 
कई दिनों बाद खिली थी धूप थोड़ी 
सोचा कुछ गम सूख जाएँगे 
जाने कहाँ से बरसात हो गई 
आँखें अरसे से बुन रही थी ख्वाब 
कि अगली सुबह सुहानी होगी 
पर इस बार रात कुछ लंबी हो गई 
वक्त की धूल बिखर गई थी 
खुशियों की शाखों पर 
जब हटाई तो पाँखुरी बदरंग हो गई 
समंदर का खारापन 
तुम्हें कभी भाता न था 
तुम्हारी तस्वीर को मगर अब 
भीगने की आदत हो गई 
तुमसे मिले बीते बरस कई 
अब न लौटकर आ सको तो क्या 
यह गली अब इंतजार के नाम हो गई।

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