रविवार, 30 जनवरी 2011

चाहत थी अपनी


राग की नदी बन बहूं तुम्‍हारी सांसों में

यही तो रही चाह तुम्‍हारी भी,

पर सहेज नहीं पाए

तुम अपने मन का आवेग

...स्‍वीकार नहीं पाए

अपने भीतर मेरा निर्बंध बहना,

जो बांधता रहा तुम्‍हें किनारों में,



हर बार सह-बहाव से अलग

तुम निकल जाते रहे किनारा लांघकर

खोजते तुम्‍हें उसी मरुस्थल में

बूंद बूंद विलुप्त होती रही मैं

साथ बहने की मेरी आकांक्षाएं

पंछी की प्यास बनकर रह गईं

राग में डूबे मन ने फिर फिर चाहा

तुम्‍हारी चाहत बने रहना- आजन्‍म

तुम हार तो सकते हो दीगर हालात से

मगर संवार नहीं सकते

अपना ये बिखरा जीवन-राग



मुझमें भी अब नहीं बची सामर्थ्‍य

धारा के विपरीत बहा ले जाने की

न आंख मूंदकर मानते रहना हर अनुदेश

मैं अनजान नहीं हूं अपनी आंच से

नहीं चाहती‍ कि कोई आकर जलाए तभी जलूं

बुझाए, तब बुझ जाऊं

नहीं चाहती कि पालतू बनकर दुत्कारी जाऊं

और बैठ जाऊं किसी कोने में नि:शब्‍द

मुझे भी चाहिए अपनी पहचान

अपने सपने -

जो कैद है तुम्‍हारी कारा में

चाहिए मुझे अब अपनी पूर्णता

जो फांक न पैदा करे हमारे दिलों में ...

करो तुम्‍हीं फैसला आज

क्या मेरी चाहत गलत है

या तुम्‍हीं नहीं हो साबुत, साथ निभाने को ..?

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