मंगलवार, 15 मार्च 2011

उलझनों ने हम दोनों को
कर दिया बेस्वाद l
लौट कर आना चाहूँ भी तो कैसे.....?
क्या लाऊँगी तुम्हारे लिए
नफरतों के गुलाब
और आरोपों के झरते गुलमोहर

नहीं दोस्त, मुझे जाने दो
तुम्हारे लिए, मैं तुम जैसी नहीं रही l
तुम्हारे ही कारण, मैं बहुत कड़वी हो रही हूँ।
इसे अफवाह मत समझना
यह सच है, मैं भीतर से कड़वी हो रही हूँ।

दिल की कोमल धरा पर
धँसी हुई है
तुम्हारी यादों की किरचें
और
रिस रहा है उनसे
बीते वक्त का लहू,
कितना शहद था वह वक्त
जो आज तुम्हारी बेवफाई से
रक्त-सा लग रहा है।
तुम लौटकर आ सकते थे
मगर तुमने चाहा नहीं
मैं आगे बढ़ जाना चाहती थी
मगर ऐसा मुझसे हुआ नहीं।

तुम्हारी यादों की
बहुत बारीक किरचें है....
दुखती हैं
पर निकल नहीं पाती
तुमने कहा तो कोशिश भी की।
किरचें दिल से निकलती हैं तो
अँगुलियों में लग जाती है l
कहाँ आसान है
इन्हें निकाल पाना
निकल भी गई तो कहाँ जी पाऊँगी
तुम्हारी यादों के बिना।

उत्ताप दोपहरी की
ठहरी हुई तपिश में
तुम्हारी आवाज का एक टुकड़ा
शहद की ठंडी बूँद सा
घुलता रहा मुझमें शाम तक।

टूट-टूट कर बिखरते अनारों-सी
तुम्हारी आतिशी हँसी
मेरे मन की कच्ची धरा पर
टप-टप बिखरती रही,
मैं ढूँढती रही तुम्हें
बुझे हुए अवशेषों में,
झुलसती रही रात भर।

तुम्हारी आवाज का टुकड़ा भी
घुलने के बाद अटकता रहा,
फँसता रहा।
बेरहम बादल
बेमौसम बजता रहा,
बिन बरसे हँसता रहा।
Mere Liye तुम
नहीं हो एक शब्द
तुम
नहीं हो पल भर का साथ
तुम
नहीं हो केवल याद
तुम.....?
तुम हो मेरे जीवन का वह राज
जिसे मैं, कभी ना दे सकी आवाज.........।

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